शुक्रवार, 24 मई 2019

दाग़ दहलवी
जयंती विशेष


ब'अद मुद्दत के ये ऐ 'दाग़' समझ में आया,
वही दाना है कहा जिस ने न माना दिल का।


उम्र के आखिर में ग़ालिब का ये ख्याल था कि देहली वालो को उसी उर्दू ज़बान में अशआर कहना चाहिए जो उर्दू वो बोलते है,किसी ने ग़ालिब से पूछा कि और हज़रत दाग़ की उर्दू कैसी है? ग़ालिब ने फ़रमाया कि ऐसी उम्दा है कि किसी की क्या होगी, जौक़ ने अगर उर्दू को पाला है तो दाग़ ने उसे तालीम दी ।

 नवाब मिर्ज़ा दाग़ दहलवी ऐसे शायर जो अपने वक़्त में उस ख्याति और शोहरत को हासिल कर चुके थे जो एक शायर को मिलनी चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं कि दाग़ उस युग में भी ज़िंदा रहे जो दाग़ युग था । कोई मुशायरा ख़त्म होता और जब लोग मुशायरे से  बाहर जाते तो दाग़ का शेर पढ़ते पढ़ते जाते थे। इस बात को हर कदीम शायर ने माना है ।

नवाब मिर्ज़ा  खान दाग़ देहलवी अपने अहद  के सबसे मारूफ शायर थे , उनके कलाम में सादगी के साथ साथ शोखी ,और रवानी कूट-कूट कर भरी है दाग की शायरी इश्क़ो-आशिकी की शायरी है दाग का इश्क बाजारी है जब वे युवा हुए तब से मुगलों की शोखियां ,शहजादियों की अठखेलियां ,और शहजादों की रंगरेलियां देखते रहे । एक तो उनका मिजाज रंगीन ऊपर से नाच गाने ,मौशिक़ी ,दौरे शराब, इन्हीं सब के बीच वह जवान हुए। किले की टकसाली रसीली उर्दू जबान और इब्राहिम ज़ौक़ जैसा उस्ताद शायर फिर क्या था दाग अब पूरे दाग हो गए थे ।रंगीन आशिक मिजाज उनके कलाम को सीने से लगाए फिरते थे दाग़ ने अपना रंग अख्तियार कर लिया था और वह रंग कभी भी किसी को हासिल ना हो सका। दाग़ के कलाम में जबान और बयान का जो लुत्फ है वो देखते ही बनता है कैसे छोटी सी छोटी,बड़ी से बड़ी  बात को आसान जबान से कह देते,मुहावरात का गज़ब का इस्तेमाल मौजूं को और भी निखार देता । दाग की शायरी जबान और बयान के लिहाज़ से बेहतर से बेहतर है ।

                  नवाब मिर्ज़ा दाग़ दहलवी का जन्म 25 मई 1931 में दिल्ली के चांदनी चौक में हुआ किले में शाही रीति-रिवाज से उनकी शिक्षा दीक्षा हुई दाग के चार दीवान मिलते हैं और उनके शागिर्दों की एक लंबी फेहरिस्त है ।

सुमित शर्मा

दाग़ के शेरों के चंद नमूने

खातिर से या लिहाज़ से मान तो गया,

झूठी कसम से आपका यह मान तो गया।

दिल में समा गई है कयामत की शोखियां

दो-चार दिन रहा था किसी की निगाह में।

हमने उनके सामने अव्वल तो खंजर रख दिया,

फिर कलेजा रख दिया,दिल रख दिया,सर रख दिया।

वह नहीं सुनते हमारी क्या करें ,

मांगते हैं हम दुआ जिन के लिए।

गजब किया तेरे वादे पर ऐतबार किया ,

तमाम रात क़यामत का इंतजार किया।

आशिक़ी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद 

बंदगी से ख़ुदा नहीं मिलता ।

सोमवार, 20 अगस्त 2018

ग़ज़ल, रंज, ग़म,सितम,हौसला सनम

ये किसने कहा रंजो-अलम बेच रह हूँ,
शरबत बना के ज़हर-सितम बेच रहा हूँ।

परवाह नहीं जिसको रिश्तों की,वफ़ा की,
उस शख़्स को अहदो-क़सम बेच रहा हूँ ।

कहते है मुहब्बत को सभी नेमते-हस्ती,
तारीख़ में जो कुछ है रकम बेच रहा हूँ ।

ख़ुश्बू से मुअत्तर है ये फुलों से बना है,
ज़ख़्मो के लिए मरहमे-ग़म बेच रहा हूँ ।

 है हौसला तो मुझसे करे रब्त बेज़ुबान,
तलवार से भी तेज़ कलम बेच रहा हूँ ।

अहले-हरम की खैर मनाता हूँ मैं "सुमीत"
इस शहर में पत्थर के सनम बेच रहा हूँ ।

ग़ज़ल, गुलशन, सावन,तमस,

न गुलशन में राहत, न राहत क़फ़स में,
सुलगती है कलियां,दहक ख़ारो-खस में ।

हर एक सिम्त गूँजी ये झंकार कैसी,
ये गत किसने झेड़ी है साज़े-नफ़स में ।

इसी कशमकश में गुज़र गयी जवानी,
न दिल आया काबू न वो आये बस में ।

न बिजली चमकी न वो डर के लिपटे,
न बरसा ही सावन अबके बरस में ।

दिया हो,कि चन्दा हो ,कि या हो सितारा,
"सुमित" कुछ उजाला तो हो इस तमस में।


शनिवार, 6 जनवरी 2018

   हम सुख़न फ़हम है ग़ालिब के तरफ़दार नहीं ।




मिर्ज़ा ग़ालिब एक मात्र ऐसे शायर है जिन पर सबसे अधिक लिखा और पढ़ा गया है ,या समलोचनाये और अनुवाद प्रकाशित किये गए है । उर्दू दुनिया मे ये किसी और शायर को नसीब नही हुआ है। ग़ालिब को सभी ने सर्वसम्मति से सर्व श्रेष्ट माना है ।ग़ालिब के जीवन या उनकी शायरी के हर पहलू पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है ।आज यहां सिर्फ उनको याद करके ही खिराज-ए-अक़ीदत दी जा सकती है ।किसी ने आज मुझसे बड़े सामान्य ढंग से पूछा कि अगर आज ग़ालिब ज़िंदा होते तो क्या होता ,तो दो बातें तुरंत ही मेरे दिमाग मे कौंध गई अव्वल तो ग़ालिब साहब का ही शेर था,

ना था कुछ तो खुदा था कुछ ना होता तो खुदा होता,
डुबोया मुझ को होने ने ना होता में तो क्या होता ।


 दोयम ये कि आज के दौर में उनका दम घूँट गया होता ।लोग उन्हें बला का मगरूर शख़्स समझ कर तिरस्कार कर देते ,और ना जाने क्या क्या होता ।आज जब हर तरफ चाटुकारिता है बेहयाई है दो कौड़ियो के लिए अपने ज़मीर का सौदा करके तमाम नीचताई को प्राप्त किया का रहा है वहाँ ग़ालिब का जीना दूभर हो जाता । ग़ालिब का जीवन आर्थिक तंगी और उसकी चिंताओं में गुज़र गया लेकिन फिर भी उन्होंने अपने स्वाभिमान पर बाल नही आने दिया और तमाम उम्र अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान रखा । बकौल ग़ालिब ----


बंदगी में भी वो आज़ाद ओ खुदबीं है कि हम,
उल्टे फिर आये दरे-काबां अगर वां ना हुआ ।।         

 ग़ालिब का ये शेर आज के दौर में पढ़ा जाना भी कुछ लोगो को नागवार गुज़र सकता है लेकिन  ग़ालिब के लिए ये मात्र स्वाभिमान का प्रश्न है । ग़ालिब काबे के दरवाजे से वापस फिर आये महज इसलिए कि वहाँ का दरवाजा खुला हुआ नही था । ऐसे कई किस्से है जिससे ग़ालिब के खुद्दारी को समझा जा सकता है । एक बार दिल्ली कालेज में, फ़ारसी के प्रोफेसर की आवश्यकता आन पड़ी ,लोगो ने और ग़ालिब के दोस्तो ने ग़ालिब का नाम सुझाया क्यों कि वे ग़ालिब के आर्थिक तंगी से वाकिफ भी थे और उनकी अज़ीम शख़्सियत से भी । बुलाये जाने पर ग़ालिब पालकी में सवार होकर कालेज गए और वहाँ इतला करके सेकेट्री साहब का इतंज़ार करने लगे कि वो आकर बदस्तूर इन्हें अंदर ले जाएंगे, सेकेट्री साहब को मालूम हुआ कि इस वजह से नही आये तो वो खुद बाहर गए और फरमाया कि हुज़ूर आज आप  नौकरी के लिए आये है और ऐसे मौके पर मैं आपको कैसे लेने आ सकता हूं ,तो ग़ालिब ने फरमाया की सरकारी नौकरी करने का इरादा मैने इस लिए किया था कि मेरी इज़्ज़त में और इजाफा हो ना कि मौजूदा इज़्ज़त में कमी हो जाये ,मुझे इस खिदमत  से मुआफ़ किया जाए, और उल्टे फिर आये ।           

   

 ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान *ग़ालिब* ,
तुझे हम वली समझते ,जो ना बादाख़्वार होता ।

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

जगजीत चित्रा, विवेक सिंह

जगजीत सिंह चित्रा सिंह , विवेक सिंह

जगजीत सिंह

इलाज-ए-दर्द-ए-दिल तुमसे, मसीहा हो नहीं सकता

जगजीत अंकल का अचानक चला जाना एक ग़लत फैसला था, यक़ीनन ये फैसला उनका न था और न हमारा था, ये फैसला तो उसका था जिसके सामने किसी की नहीं चलती इसलिए इस तानाशाही फरमान को मानने के अलावा कोई चारा भी नहीं था,
लेकिन ये भी तो पता है कि ये सही वक़्त नहीं था उनके जाने का, वैसे भी ये फैसला कोई नया और आखरी फैसला नहीं था
उसका....उसने इससे पहले भी कई अनचाहे फैसलों को हम पर धोपा था तो इस बार भी दर्द तो हुआ पर ये दर्द नया नहीं था जाना पहचाना दर्द था, अब तो बस उनकी यादें है और उनकी ग़ज़लें है, जब ये सब तमाम खबरें आ रही थी तब उस वक़्त मैं, मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम, सुन रहा था पर अब नहीं सुन पाता,अब इस ग़ज़ल को जीता हूँ मैं...

मिलकर जुदा हुए तो न सोया करेंगे हम,
इक-दूसरे की याद में रोया करेंगे हम.

आंसू छलक-छलक के सतायेंगे रात भर,
मोती पलक-पलक में पिरोया करेंगे हम.

जब दूरियों की आग दिलो को जलाएगी,
जिस्मों को चांदनी में भिगोया करेंगे हम.

भोपाल में मैंने जगजीत अंकल के 3 प्रोग्राम देखें हैं। वहां मेरी और उनकी मुलाकात बड़ी हसीन रही। एक बार तो होटल नूरे-सबाँ के लॉबी में जगजीत अंकल के साथ काफी वक्त गुजरने का मौका मिला था,भोपाल के शायर डा.बशीर बद्र भी मौजूद थे। हमने काफी बातें की और साथ में तस्वीरे भी लीं। जगजीत अंकल ने हमसे कैमरा लिया और डा बशीर बद्र जी की तस्वीर लेने लगे।ये मंजर आफताबों-महताब का एक साथ होने जैसा था,जो मुझसे तो भुलाया न जाएगा। भोपाल का ही वाकया मुझे याद आता है पुराने भोपाल में अपने एक परिचित के घर गया था,जहां अपने से बहुत बड़े लोगों की सोहबत में कुछ शेर-ओ-सुखन की चर्चाएं होती रहती थी। यहां एक साहब बैठे थे जो पंकज उधास साहब मुरीद थे उन्होंने पंकज जी की तारीफ के पुल बांधने शुरू कर दिए और पुल बांधते-बांधते उनकी और जगजीत जी की तुलना करने लगे,उनके मुखातिब अब मै भी था मै जगजीत जी का मददाह हूँ तो चुपचाप सारी बातें कैसे सुन सकता था। मैने कहा जनाब मै पंकज उघास और जगजीत सिंह में वही फर्क देखता हूं जो फर्क जफर गोरखपूरी और रघुपति सहाय फिराक गोरखपूरी में है। सब वाह-वाह के साथ खूब हंसने लगे,जनाब का मुंह इतना सा रह गया था। दरअसल जगजीत जी ने ऊर्दू शायरी के प्रारंभिक युग के शायरो से लेकर आज के युवा शायरों तक की गजलों को आवाज दी है। दरअसल गजल की अगर कोई आवाज़ होती है तो वो आवाज जगजीत सिंह थे,जो उनके साथ ही मर गई। जगजीत सिंह ने गजल को एक दयार बख्शा है,इसलिए नहीं कि उन्होंने गजल को आम-ओ-खास तक पहुंचाया बल्कि गजल को उसकी पूरी नजाकत और उसके क्लासिकल और मकसूद अंदाज के साथ लोगों तक पहुंचाया। साथ ही उन्होंने गजल गायकी को नए साज और नया अंदाज दिया,जिसमें परम्परागत साजों के साथ नए साज और नई डिजिटल तकनीक का भी कामयाब इस्तेमाल किया,जिससे दीगर ग़ज़ल गायक अछूते ही रहे है.
उन्होंने अच्छे गजलों को ही इंतिखाब किया। चाहे वो बड़े शायर की हो या छोटे और नए शायर की हो। गजलें मीटर में होती है,जिस को बहर कहा जाता है जो एक गजल के लिए बेहद जरूरी है जैसे रदीफ और काफिए जरूरी होते हैं। इनका भी जगजीत जी ने हमेशा ख्याल रखा,जिससे उनकी मौशिकी का स्तर हमेशा बना रहा। किसी जमाने में उन्होंने टीवी सीरियल मिर्जा गालिब में अपनी आवाज दी थी,जो यकीनन गालिब के रूह तक पहुंची। उस वक्त वो आवाज मेरी रूह में भी उतर गई थी,जगजीत सिंह को सुनना शुरू किया और आज तक सुनता आ रहा हूं,पर अब शायद उनकी आवाज ही गुंजेगी। उनसे मेरी सबसे पहली मुलाकात एक दशक पहले 29-12-1999 को भोपाल में हुई थी,वहां उनका प्रोग्राम था। घर से सबको नाराज करके अकेले ही चला गया था। नूर-ए-सबाँ पांच सितारा हाटल में सुबह दम उनसे मिलकर मैने अपनी बेकरारी को कम करना चाहा था,पर उनसे मिलकर बिछडऩे पर और बेकरार हो गया था। फिर अकसर उनके प्रोग्राम में जाने लगा। मैने भोपाल,नागपुर,रायपुर,बिलासपुर में उनके प्रोग्राम देखे हैं। हाल ही में 1 सितंबर को रायगढ़ में उनका प्रोग्राम था। प्रोग्राम तो अच्छा था पर मुझे क्या पता था वो हम सबका आखिरी प्रोग्राम हो जाएगा। मुझे इस बात पर बेहद बेकरारी है कि मै रायगढ़ में उनसे नहीं मिल पाया और यहीं बेकरारी अब उम्र भर कि बेकरारी हो जाएगी। वो बहुत जिंदादिल इंसान थे। सोंचता था कभी मुंबई जाके इत्मिनान से मुलाकात करूंगा क्या पता था यह हसरत दिल की दिल में रह जाएंगी,जिसकी कब्रगाह अब मेरा दिलो-दिमाग हो जाएगा। मुझे इस बात का भी दुख है कि रायगढ़ में उनसे मुलाकात नहीं हो पाई। उनकि गजलें,उनकी यादें हमेशा साथ रहेंगी,उन्हें भुला पाना मुमकिन नहीं।

हमको याद आती है बातें उसकी,
दिन को रोजगार और रातें उसकी.
क्या आजाद ओ खुदबी था वो,
अपना खुदा आप ही था वो.....

गुरुवार, 19 मार्च 2009

ग़म,खुशी


किस कदर ग़मज़दा हूँ मैं,
हर वक्त हँसता रहता हूँ मैं।

समन्दर हूँ,न कोई दरया,
इन्सां हूँ,हमेशा बहता हूँ मैं।

लफ्ज़ नही है कम-सुखन हूँ,
मुसलसल सोचता रहता हूँ मैं।

कोई उम्मीद बाकी नही, लेकिन
कुछ कभी-कभी कहता हूँ मैं।

जुदा हो गए,कहाँ-कहाँ हो गए,
बस तुम्हे ही देख रहता हूँ मैं।

तू खुदा,खुदा भी तो नहीं ,
जाने क्या-क्या कहता हूँ मैं।

मुझसे छुटी अब तेरी गली भी,
देख अब कहाँ हो रहता हूँ मैं।

आज भी तुम्हारा इंतजार हैं,
दिए की तरह जलता हूँ मैं।

इस दर्जा मुत्मईन हूँ तेरी कसम,
बिन बहलाये,बहलता हूँ मैं।

एक मिनट गाफ़िल नहीं तुझसे,
सोते से भी जाग उठता हूँ मैं।